Thursday, September 6, 2018

करोड़ का लंचबॉक्स और चाय का प्याला चोरी

हैदराबाद पुलिस के पास एक अनोखा केस आया है, जिसके लिए उसे इतिहास में झांकना पड़ेगा.
केस है सोने के लंच बॉक्स की चोरी का. ये डिब्बा सिर्फ़ सोना से ही नहीं बना है, बल्कि इसमें नायाब हीरे-मोती भी जड़े हुए हैं.
इस लंचबॉक्स के अलावा हैदराबाद के अंतिम निज़ाम मीर उस्मान अली ख़ान का नीलम-जड़ा सोने का चाय का एक प्याला, तश्तरी और चम्मच भी चोरी हो गया है.
चोरी किए गए सामाका भार तीन किलोग्राम है और इसकी क़ीमत करीब 50 करोड़ रुपए बताई जा रही है.
पुलिस को चोरी का पता सोमवार सुबह लगा. शक है कि चोरी रविवार-सोमवार की दरम्यानी रात को हुई.
ये सारा सामान निज़ाम संग्रहालय से चोरी हुआ है. यही संग्रहालय पहले निज़ाम का महल हुआ करता था.
10 साल पहले शाही परिवार की एक तलवार भी शहर के एक अन्य संग्रहालय से चोरी हो गई थी.
ख़बरों के मुताबिक़ पुलिस ने स्थानीय पत्रकारों को बताया है कि चोरों ने म्यूज़ियम के सीसीटीवी कैमरों से छेड़छाड़ की थी ताकि उनकी चोरी की रिकॉर्डिंग न हो सके.
जिस कांच के दरवाज़े के उस पार ये सामान था, उस दीवार को तोड़ने के बजाय, बड़ी नफ़ासत के साथ खोला गया था ताकि कांच टूटने की आवाज़ न आए.
निज़ाम म्यूज़ियम को साल 2000 में जनता के लिए खोला गया था. इस म्यूज़ियम में मीर उस्मान अली ख़ान को साल 1967 में मिले कुछ बहुमूल्य उपहार भी रखे गए हैं.
साल 1967 में आख़िरी निज़ाम का निधन हो गया था.
निज़ाम के पास कई बेशकीमती हीरे-जवाहरात थे, जिनमें अंडे के साइज़ का जैकब्स डायमंड भी शामिल था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में मीडिया का कोई भी मूल्यांकन ये मान कर शुरू होता है कि मोदी को मीडिया ने बनाया है. नरेंद्र मोदी को अकेले आरएसएस नहीं बना सकता था.
मीडिया ही था, जिसने सपने दिखाए और कहानियाँ सुनाईं. अमरीकी कॉमिक्स के प्रमुख किरदार रोशैख़ (जो अपराध से लड़ता है और दोषियों को हर हाल में सज़ा देता है) की तरह, जिससे लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस में अब कुछ नहीं बचा है और उसका विकल्प केवल मोदी ही हैं.
इसने एक ऐसे व्यक्ति की रूपरेखा तैयार की, जो सक्रिय, साहसी, निर्णायक, सक्षम और कठोर था. वो एक 'इंप्रेशनिस्ट पेंटर' की तरह धीरे-धीरे उनकी एक जीवंत तस्वीर बनाते गए.
मोदी दो दशकों पहले पूरी तरह एक अफ़वाह थे, धीरे-धीरे चर्चाओं का हिस्सा बन गए और फिर मीडिया की रिपोर्टों ने पहले उनकी एक छवि बनाई. फिर उन्हें एक आइकन या आदर्श में बदल दिया. नरेंद्र मोदी मीडिया की एक बहुत बड़ी खोज हैं.
मीडिया का मोदी से क्या संबंध है, इस सवाल को दूसरी तरह से पूछने की जरूरत है. वाल ये है कि मीडिया अपनी ही बनाई कृति को कैसे देखता है, जो अब प्रधानमंत्री बन चुकी है. इसका जवाब काफी चिंताजनक है. लोग मीडिया से आलोचक, तथ्यात्मक और कम से कम संतुलित होने की उम्मीद तो करते हैं.
लेकिन अफ़सोस है कि मीडिया मोदी का बहुत बड़ा फ़ैन है. मीडिया ने खुद के भीतर झांकना ही छोड़ दिया है. जहां मीडिया को लोगों तक सच पहुंचाना चाहिए था और आलोचक की भूमिका निभानी चाहिए थी वहीं वो मोदी के कट्टर राष्ट्रवाद की धुन में व्यक्ति पूजा करने लगा है.
अख़बारों में मोदी पर छपी रिपोर्ट और विज्ञापन एक जैसे ही लगते हैं. इससे लगता है कि मोदी भारत के किम इल संग बन गए हैं, जो उत्तर कोरिया के पहले सर्वोच्च नेता थे. ऐसे नेता जिनसे कोई सवाल नहीं किया जाता.
शुरुआत में किसी को भी नरेंद्र मोदी से सहानुभूति हो सकती है क्योंकि मीडिया ने उन्हें एक ऐसे शख़्स के तौर पर दिखाया है, जो बाहरी और एक साधारण चाय वाला होने के बावजूद भी दिल्ली के लुटियंस किले में दाखिल हुआ.
अब इस काल्पनिक कहानी का आकर्षण बनाए रखने के लिए इन बातों पर बार-बार ज़ोर दिया जाता है.
मीडिया विरोधाभासी तरीक़े से दोनों बातें कहता है, एक तरफ़ तो वो कहता है कि मोदी तो नए हैं, इसलिए उनका स्वागत करो, दूसरी तरफ़ वो उन्हें वक्त की पुकार बताता है. सा लगता है जैसे 2019 के चुनावों की घोषणा हो चुकी है. ये हालात अमित शाह को तो ख़ुश कर सकते हैं लेकिन मीडिया की संदेह और आलोचन करने और उसकी जांच करने की भूमिका को पूरा नहीं करते हैं.
मीडिया इस तरह व्यवहार करता है जैसे देश में मोदी के सिवा कुछ है ही नहीं. बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई जाने वालीं ये ख़बरें मीडिया पर सवाल उठाती हैं और उसके विश्लेषण पर संदेह पैदा करती हैं. स बात को साबित करने के लिए तीन-चार मामलों पर गौर करते हैं. पहला मामला निश्चित तौर पर नोटबंदी से जुड़ा है. मीडिया ने इसे भारत में मनाए जा रहे एक त्यौहार की तरह दिखाया.
हो सकता है कि मध्यम वर्ग ने शुरुआत में इसे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई समझते हुए ख़ुशी मनाई हो. लेकिन, जल्द ही ये हक़ीक़त उनके सामने आ गई कि नोटबंदी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और नगदी की ज़रूरत वाले धंधों के ख़िलाफ़ एक लड़ाई थी.
मीडिया लोगों की परेशानी को अनदेखा करता रहा है. नोटबंदी नाम के इस त्यौहार में मीडिया ने इन व्यापक दिक्कतों के सामने अपनी आँख बंद रखी.

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